हमारे यहाँ कथा चित्रपट को आकार देने में 'पुंडलिक' (१९१२) के जरिये तोरनेजी को सफलता मिली ; लेकिन वह पूरी तरह पहला स्वदेसी चित्रपट माना नहीं गया और ना ही चित्रपटीय आविष्कार!..फिर भी इस मुकपट को सराहा गया ! इसके बाद भारतीय कथा चित्रपट निर्मिती में आए...दादासाहेब फालके !
मूल त्रम्बकेशवर के धुंडीराज गोविन्द तथा दादासाहब फालके का जन्म ३० एप्रिल, १८७० को हुआ था ! पहले से कलाप्रेमी रहे फालकेजी छायाचित्रकला ,मुद्रण ऐसे नौकरी-व्यवसाय में रहे। बम्बई के 'जे जे स्कूल ऑफ़ आर्ट्स ' और बडोदा के 'कलाभवन' में उन्होंने बाकायदा अध्यापन किया था...लेकिन उनका सृजनात्मक मन नए विज्ञानंकला का सपना सजोये हुए था !..वैसे नाटक और अभिनय में उन्हें पहले से रूचि थी !
बम्बई के वास्तव्य में उनके सामने ..'सिनेमा ' यह अदभुत कलामाध्यम आया। शायद इसीका सपना वह देखा करते थे !..फिर उन्होंने कई विदेसी लघुपट देखे। तब प्रबोधन, अभिव्यक्ति का यह प्रभावी माध्यम है इसका एहसास उन्हें हुआ....इसी दौरान १९१० में उनके देखने में 'पथे' कम्पनी का 'लाइफ ऑफ़ जीसस क्राइस्ट' यह अनोखा मूक(कथा)पट आया..और वे उससे विलक्षण प्रभावित हुए!..ऐसा चित्रपट हमारे पुरान कथाओं पर बन सकता है इस विचार ने उनके मन में थान ली और वह सिनेमा माध्यम की ओर आकृष्ट हुए !
चित्रपट निर्माण का विचार उन्होंने फिर कार्यान्वित किया ...जिसमे उनके परिवार ने उन्हें काफी सहायता की !
'ए बी सी गाइड टू सिनेमतोग्रफ' इस किताबसे उन्हें उस सन्दर्भ में काफी जानकारी मिली। बाद में उन्होंने लन्दन से टोपीकल कैमरा मंगाकर बहुत प्रयोग किये। इस प्रयत्नों में उन्हें आर्थिक तथा तबियत की समस्योसे भी ज़ुजना पडा लेकिन वह फिर भी लगे रहे !...फिल्म कैपिटल के लिए अपनी पारिवारिक पूंजी तक उन्होंने लगा दी !...और फिर इस माध्यम का साक्षात् तजुर्बा लेने वह लन्दन तक गए !
स्वतंत्रता और स्वदेसी के नारे लगने वाले उस समय में..सरकार की नौकरी छोड़ कर फालकेजी ने खुद के मुद्रण व्यवसाय से लेकर अब स्वदेसी चित्रपट बनाने का मार्ग चुना था ! चित्रपट निर्मिती की पुर्वतयारी होने के बाद फरवरी ,१९१२ को साक्षात् तजुर्बा लेने गए फालकेजी ने वहा के 'हेपवर्थ सिनेमा कंपनी ' का कारोभार देखा . ..इसमें उन्हें 'बॉयोस्कोप ' नियतकालिक के संपादक केबोर्न ने सहायता की !..फिर अप्रैल में वह भारत लौटे। बाद में, उन्होंने वहांसे मंगाई हुई यंत्रसामग्री एक महीने के भीतर यहाँ पहुंची...जिन्हें जोड़ कर उन्होंने कुछ प्रात्यक्षिक भी किये !
-मनोज कुलकर्णी
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विद्याविभुषित दादासाहेब फालके |
मूल त्रम्बकेशवर के धुंडीराज गोविन्द तथा दादासाहब फालके का जन्म ३० एप्रिल, १८७० को हुआ था ! पहले से कलाप्रेमी रहे फालकेजी छायाचित्रकला ,मुद्रण ऐसे नौकरी-व्यवसाय में रहे। बम्बई के 'जे जे स्कूल ऑफ़ आर्ट्स ' और बडोदा के 'कलाभवन' में उन्होंने बाकायदा अध्यापन किया था...लेकिन उनका सृजनात्मक मन नए विज्ञानंकला का सपना सजोये हुए था !..वैसे नाटक और अभिनय में उन्हें पहले से रूचि थी !
बम्बई के वास्तव्य में उनके सामने ..'सिनेमा ' यह अदभुत कलामाध्यम आया। शायद इसीका सपना वह देखा करते थे !..फिर उन्होंने कई विदेसी लघुपट देखे। तब प्रबोधन, अभिव्यक्ति का यह प्रभावी माध्यम है इसका एहसास उन्हें हुआ....इसी दौरान १९१० में उनके देखने में 'पथे' कम्पनी का 'लाइफ ऑफ़ जीसस क्राइस्ट' यह अनोखा मूक(कथा)पट आया..और वे उससे विलक्षण प्रभावित हुए!..ऐसा चित्रपट हमारे पुरान कथाओं पर बन सकता है इस विचार ने उनके मन में थान ली और वह सिनेमा माध्यम की ओर आकृष्ट हुए !
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अपने पुरे परिवार सहित दादासाहेब फालके |
चित्रपट निर्माण का विचार उन्होंने फिर कार्यान्वित किया ...जिसमे उनके परिवार ने उन्हें काफी सहायता की !
'ए बी सी गाइड टू सिनेमतोग्रफ' इस किताबसे उन्हें उस सन्दर्भ में काफी जानकारी मिली। बाद में उन्होंने लन्दन से टोपीकल कैमरा मंगाकर बहुत प्रयोग किये। इस प्रयत्नों में उन्हें आर्थिक तथा तबियत की समस्योसे भी ज़ुजना पडा लेकिन वह फिर भी लगे रहे !...फिल्म कैपिटल के लिए अपनी पारिवारिक पूंजी तक उन्होंने लगा दी !...और फिर इस माध्यम का साक्षात् तजुर्बा लेने वह लन्दन तक गए !
स्वतंत्रता और स्वदेसी के नारे लगने वाले उस समय में..सरकार की नौकरी छोड़ कर फालकेजी ने खुद के मुद्रण व्यवसाय से लेकर अब स्वदेसी चित्रपट बनाने का मार्ग चुना था ! चित्रपट निर्मिती की पुर्वतयारी होने के बाद फरवरी ,१९१२ को साक्षात् तजुर्बा लेने गए फालकेजी ने वहा के 'हेपवर्थ सिनेमा कंपनी ' का कारोभार देखा . ..इसमें उन्हें 'बॉयोस्कोप ' नियतकालिक के संपादक केबोर्न ने सहायता की !..फिर अप्रैल में वह भारत लौटे। बाद में, उन्होंने वहांसे मंगाई हुई यंत्रसामग्री एक महीने के भीतर यहाँ पहुंची...जिन्हें जोड़ कर उन्होंने कुछ प्रात्यक्षिक भी किये !
चित्रपट निर्माण के इस प्रयास में फालकेजी को उनकी पत्नी सरस्वतीबाईजी का बहोत बड़ा सहयोग मिला .. यहाँ तक की अपने जेवर भी उन्होंने इस कार्य के लिए दिए !..साथ ही तांत्रिक चिजोंमे उनका हाथ बटाया...जैसे की फिल्म परफ़ोस्त करके कैमेरामे बिठाना , डेवलप करना ..!..इतनाही नहीं उनके बेटेभी हाथोसे मशीन चलाना सिख गए थे !..तो प्रत्यक्ष चित्रपट बनाने से पहले उन्होंने एक बिज बोया ..और उससे जैसे जैसे पौदा उगने लगा वैसे वैसे उसका छायांकन वह करते गए। उससे 'बिज से उगता पौदा' यह लघुपट तैयार हुआ !..फिर घर में ही उन्होंने वह फिल्म डेवलप की और मोमबत्ती की प्रकाश में उसे परिवारसहित दीवार पर देखा। यह कामयाब हुआ देख कर वह फुला नहीं समाये !
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