Monday 22 July 2013

दादासाहेब फालके की चित्रपट निर्मिती और 'राजा हरिश्चन्द्र' (१९१३) देखिए !

यह अत्यंत दुर्लभ चित्रफीत है!…इसमें आप दादासाहेब फालके को चित्रपट निर्माण में कार्यरत देख सकते है.। इसमे छायाचित्रकार और कलाकारोंको मार्गदर्शन से लेकर उनका सोचना, लिखना ,निर्देशन तथा अन्य विभागों से सम्बंधित कार्य..संकलन तक का समावेश है ।
इसके बाद आप फालके जी के अन्य पौराणिक चित्रपटोके कुछ अंश देख सकते है…जिसमे ट्रिक सीन्स तथा स्पेशल इफेक्ट्स शामिल है ! इसमें 'कालियामर्दन' के दृश्य में उनके बेटी मन्दाकिनी फालके भी श्रीकृष्ण के किरदार में दिखाई देगी !
इस सब के बाद…आप दादासाहेब फालके ने १९१३ में बनाया हुआ…'राजा हरिश्चन्द्र' यह भारत का पहला कथा चित्रपट देखेंगे !
दादासाहेब फालके की चित्रपट निर्मिती और 'राजा हरिश्चन्द्र' (१९१३) को मानवंदना !

-मनोज कुलकर्णी 

दादासाहेब फाळकेका 'राजा हरिश्चन्द्र' पहेला भारतीय कथा चित्रपट !

'राजा हरिश्चन्द्र' की सोच में
दादासाहेब फालके! 
घर पर बनाया 'बीज से उगता पौदे'का लघुपट सफल होने के बाद दादासाहेब फालके ने चित्रीकरण से वाकिफ होने के लिए और भी कुछ प्रयोग किये। इसमें बच्चे दोस्तोंके साथ बगीचे में खेलते है इसका चित्रण उन्होंने किया। इससे बच्चोकी  भी जिज्ञासा बढ़ी। फिर एक लघुकथा फालकेजी ने स्वयं लिख कर उनपर चित्रित की।इसका   सेटिंग, मेकअप से लेकर सन्कलन तक सब उन्होनेही किया था ... शायद यह पहली 'चिल्ड्रेन फिल्म' कही जा सकती है!तब तक कार्बाइड दिये पर देखी जा रही ऐसी चित्रफीत उन्होंने बिजलीके दिये पर प्रोजेक्टर की  सहायता से अपने स्नेहिओसहित देखी। वह चित्रपटीय आविष्कार देख कर सब आश्चर्यचकित, आनंदीत  हुए!


पहलेही चित्रपट के लिए छायाचित्रकार भी स्वदेसी!
 दादासाहेब फालके अपने स्नेही तेलंग को छायाचित्रण
 का प्रशिक्षण देते हुए !
इस सफलता से फालकेजी का
चित्रपट निर्माण का आत्मविश्वास, उत्साह और बढा...नतीजन उसके लिए लगने वाले आर्थिक सहायता का मार्ग भी सुकर हुआ। उनके चित्रनिर्मिती के बारेमे आश्वस्त होने से साहूकार से  भी
अर्थसहाय्य (कर्ज) प्राप्त हुआ!...फिर अपने पहले कथा चित्रपट का विषय उन्होंने तय किया...'राजा हरिश्चन्द्र'!

'राजा हरिश्स्चंद्र' के किरदार में दत्तोपंत दाबके तथा
रोहिदास  के किरदार में भालचंद्र फालके और
तारामती के भेस में कृष्णा सालुंके!
इसकी पटकथा फालकेजी ने स्वयं लिखी...और चित्रीकरण की जिम्मेदारी त्रंबकेश्वर के अपने स्नेही तेलंग पर, उसके बारे में प्रशिक्षण देकर सौपी...याने की छायाचित्रकार (कैमरामैन) भी स्वदेसी हुआ !


इसके बाद कलाकारोका चयन शुरू हुआ...जिसमे सर्वप्रथम (उर्दू) नाटकोमे काम करने वाले गजानन वासुदेव साने को विश्वामित्र का किरदार दिया गया ...तथा उन्होनेही लाये हुए दत्तोपंत दाबके नामक तडफदार  इसमको राजा हरिश्चन्द्र के किरदार के लिए चुन लिया!..तब सवाल खड़ा हुआ स्त्री भूमिकाका....जिसके लिए इश्तिहार दिया गया..लेकिन कुछ अच्छा प्रतिसाद नहीं मिला। तो मजबूरन एक कलावती को बुलाया गया और उसपर अभिनय के संस्कार किए गए। लेकिन  वो टिक नहीं सकी ! अंततः नाटयकला कंपनी में स्त्री पात्र निभानेवाले पांडुरंग साने को तारामती के लिए राजी किया; लेकिन आखीर में रूपवान कृष्णा सालुंके ने यह किरदार अदा किया !...और राजपुत्र रोहिदास के लिए फालकेजी ने अपने पुत्र भालचंद्र यानेकी बाबाराया को पसंद किया !..भारतीय चित्रपट का यही पहला बालकलाकार होगा !


त्रंबकेश्वर के मंदिर परिसर में चित्रित हुए दृश्य में
विश्वामित्र (गजानन साने) को मनाता 'राजा हरिश्चन्द्र' का परिवार! 
इसके बाद चित्रपट के लिए लगने वाले पेहराव,जेवरात ऐसी मेकअप सामग्री के लिए राजापुरकर, सरस्वती और बेलगावकर स्त्री संगीत आदी मंडली ने सहकार्य किया। फिर कुछ लोगोको जरुरत के अनुसार काम पर लिया गया। बाद में फालकेजी ने रहते जगह के खाली परिसर में छोटेखानी स्टूडियो खड़ा किया गया। कुल चार हजार  फुट की फिल्म चित्रित करने के सब इंतजाम पुरे हो गए। तब इनडोअर प्रसंग फालके जी के मार्गदर्शन पर छायाचित्रकार  और कलाकारोने यथायोग्य किये। इसके बाद आउटडोअर चित्रीकरण के लिए सब फालकेजी के जन्मस्थान त्रंबकेश्वर पहुंचे और बाह्यदृश्य की भव्य-दिव्यता चित्रबद्ध हो गयी!

 इस तरह सब चित्रीकरण होने के बाद उत्तरीय प्रक्रिया में भी फालकेजी का योगदान था ...याने के पटकथा से लेकर संकलन तक उनका संचार चित्रपट के सभी विभागों में था! निगेटीव-पॉजिटीव् फिल्म होने के पश्चात् उसमे संकलन, टचिंग-कलरिंग, जोड़ना तथा शीर्षके (लिंक टाइटल्स) देना आदी सबकुछ दादासाहब ने खुद किया !

                                                                          


            
'राजा हरिश्चन्द्र' चित्रपट का आखिरी बाह्यदृश्य !                              

आखिर 'राजा हरिश्चन्द्र'...भारत का पहला कथा चित्रपट तैयार हुआ !  तब उसका 'ट्रेड शो'  बम्बई के 'ओलिम्पिया थिएटर' में २१ अप्रैल, १९१३ को  आयोजित किया गया। इसमें खास मेहमान पधारे थे। सब ने चित्रपट को बहोत सराहा!..दादासाहेब फालके और उनके परिवार पर अभिनन्दन की जैसे बौशार हो गई !.और इस के जरिये भारत में सही मायने में (स्वदेसी) कथा चित्रपट का उगम हुआ!..कुछ दिनों बाद ..३ मई, १९१३ इस सुनहरे दिन सभी दर्शकोके  लिए 'राजा हरिश्चन्द्र' चित्रपट बम्बई के 'कोरोनेशन सिनेमा' में बाकायदा प्रदर्शित हुआ!..इसके बाद पुरे देस में इसे आम जनता ने देखा… और खूब सराहा !
                                                                                                            
'भारतीय चित्रपट शताब्दी' के शुभ अवसर पर इसके पितामह दादासाहेब फालके को विनम्र अभिवादन करते है!


 -मनोज कुलकर्णी




 
 

Saturday 20 July 2013

भारतीय (स्वदेसी) कथा चित्रपट के पितामह दादासाहेब फालके !

हमारे यहाँ कथा चित्रपट को आकार देने में 'पुंडलिक' (१९१२) के जरिये तोरनेजी को सफलता मिली ; लेकिन वह पूरी तरह पहला स्वदेसी चित्रपट माना नहीं गया और ना ही चित्रपटीय आविष्कार!..फिर भी इस मुकपट को सराहा गया ! इसके बाद भारतीय कथा चित्रपट निर्मिती में आए...दादासाहेब फालके !

विद्याविभुषित दादासाहेब फालके 

मूल त्रम्बकेशवर के  धुंडीराज गोविन्द तथा दादासाहब फालके का जन्म ३० एप्रिल, १८७० को हुआ था ! पहले से कलाप्रेमी रहे फालकेजी छायाचित्रकला ,मुद्रण ऐसे नौकरी-व्यवसाय में रहे। बम्बई के 'जे जे स्कूल ऑफ़ आर्ट्स ' और बडोदा  के 'कलाभवन' में उन्होंने बाकायदा अध्यापन  किया था...लेकिन उनका  सृजनात्मक मन नए विज्ञानंकला का सपना सजोये हुए था !..वैसे नाटक और अभिनय में उन्हें पहले से रूचि थी !

बम्बई के वास्तव्य में उनके सामने ..'सिनेमा ' यह अदभुत कलामाध्यम आया। शायद इसीका सपना वह देखा करते थे !..फिर उन्होंने कई विदेसी लघुपट देखे। तब प्रबोधन, अभिव्यक्ति का यह प्रभावी माध्यम है इसका एहसास उन्हें हुआ....इसी दौरान १९१० में उनके देखने में 'पथे' कम्पनी का 'लाइफ ऑफ़ जीसस क्राइस्ट' यह अनोखा मूक(कथा)पट आया..और वे उससे  विलक्षण प्रभावित हुए!..ऐसा चित्रपट  हमारे पुरान कथाओं पर बन सकता है इस विचार ने उनके मन में थान ली  और वह सिनेमा माध्यम की ओर आकृष्ट हुए !

अपने पुरे परिवार सहित दादासाहेब फालके 

चित्रपट निर्माण का विचार उन्होंने फिर कार्यान्वित किया ...जिसमे उनके परिवार ने उन्हें काफी सहायता की !
'ए बी सी गाइड टू सिनेमतोग्रफ' इस किताबसे उन्हें उस सन्दर्भ में काफी जानकारी मिली। बाद में उन्होंने लन्दन से टोपीकल कैमरा मंगाकर बहुत प्रयोग किये।  इस प्रयत्नों में उन्हें आर्थिक तथा तबियत की समस्योसे भी ज़ुजना पडा लेकिन वह फिर भी लगे रहे !...फिल्म कैपिटल के लिए अपनी पारिवारिक पूंजी तक उन्होंने लगा दी !...और फिर इस माध्यम का साक्षात् तजुर्बा लेने वह लन्दन तक गए !

स्वतंत्रता और स्वदेसी के नारे लगने वाले उस समय में..सरकार की नौकरी छोड़ कर फालकेजी ने खुद के मुद्रण व्यवसाय से लेकर अब स्वदेसी चित्रपट बनाने का मार्ग चुना था ! चित्रपट निर्मिती की पुर्वतयारी होने के बाद फरवरी ,१९१२ को साक्षात् तजुर्बा लेने गए फालकेजी ने वहा के 'हेपवर्थ सिनेमा कंपनी ' का कारोभार देखा . ..इसमें उन्हें 'बॉयोस्कोप ' नियतकालिक के संपादक केबोर्न ने सहायता की !..फिर अप्रैल में वह भारत लौटे। बाद में, उन्होंने वहांसे मंगाई हुई यंत्रसामग्री एक महीने के भीतर यहाँ पहुंची...जिन्हें जोड़ कर उन्होंने कुछ प्रात्यक्षिक भी किये !
     अपने स्टडी रूम में फिल्म का रिजल्ट देखते दादासाहब फालके
                                                                                    
चित्रपट निर्माण के इस प्रयास में फालकेजी को उनकी पत्नी सरस्वतीबाईजी का बहोत बड़ा सहयोग मिला .. यहाँ तक की अपने जेवर भी उन्होंने इस कार्य के लिए दिए !..साथ ही तांत्रिक चिजोंमे उनका हाथ बटाया...जैसे की फिल्म परफ़ोस्त  करके कैमेरामे बिठाना , डेवलप करना ..!..इतनाही नहीं उनके बेटेभी हाथोसे मशीन चलाना  सिख गए थे !..तो प्रत्यक्ष चित्रपट बनाने से पहले उन्होंने एक बिज बोया ..और उससे जैसे जैसे पौदा उगने लगा वैसे वैसे उसका छायांकन वह करते गए। उससे 'बिज से उगता पौदा' यह लघुपट तैयार हुआ !..फिर घर में ही उन्होंने वह फिल्म डेवलप की और मोमबत्ती की प्रकाश में उसे परिवारसहित दीवार पर देखा। यह कामयाब हुआ देख कर वह फुला नहीं समाये !
 
 
-मनोज  कुलकर्णी

 

Wednesday 10 July 2013


  १८९६ में लुमिए बंधू  भारत में पहुंचे !...और ७ जुलाई को बम्बई के 'वाटसन'स होटल' में उन्होंने अपने प्रोजेक्टेड मोशन पिक्चरस का सादरीकरण किया...और 'सिनेमा' इस सर्वश्रेष्ठ कला से वाकिफ करवाया!

इस सादरीकरण में लुमिए बन्धुओके कुछ सातएक लघुपटोको दर्शाया गया !..जिनमे (अनुक्रमसे) थे:
१) लुमिए फैक्ट्री से निकलते मजदूर
२) महिलाए और सैनिको का टहलना
३)परिवार का बच्चे के साथ नास्ता
४) बाग में पानी डालता गार्डनर (पहला विनोदी )
५) ताश खेलते...पार्टी मनाना
६) रेल का प्लेटफार्म में आना
और ७) विध्वंस (डीमोलिसन )

Tuesday 9 July 2013

अभिवादन...लूमिए बन्धुओको !


औगुस्टे मेरी लुई और लुई जेअं ....याने लुमीए बंधू !
७ जुलाई ...यह तारीख अपने चित्रपट इतिहास में बड़ी एहमियत रखती है !..इसी तारीख को सन  १८९६ में  सिनेमा का आगमन हमारे देस में हुआ !...फ़्रांसिसी  लुमीए बन्धुओने इसका प्रेजेंटेशन बम्बई में किया ! इससे पहले उन्होंने अपने इन प्रोजेक्टेड चल चित्रों का प्रेजेंटेशन पेरिस में २८ दिसम्बर , १८९५ को किया था !
इतिहास रचाने वाले इस सादरीकरण में १० लघुपट दिखाए गए थे ..

औगुस्टे मेरी लुई और लुई जेअं ....याने लुमीए बंधू ..सिनेमा माध्यम के आद्य प्रवर्तकों में एहम नाम !
बेसोंकों, फ्रांस में (अनुक्रमसे १८६२ और १८६४ ) में जन्मे  इन बन्धुओ ने ल्यओं में शिक्षा ली थी ..उनके पिता क्लौद अन्तोन लुमिए की फोटोग्राफिक फर्म थी ...और यह दोनों भाई इसमें काम करते थे इसमें लुई ने स्टील फोटोग्राफ्स प्रक्रिया में कुछ परिवर्तन किया ...जो की चलचित्र की तरफ एक बड़ा कदम था !...बाद में दोनों भाईओने १८९२ तक चलचित्रोको (मूविंग इमेजेस) निर्माण करना शुरू किया ..!

इसमें अपने फिल्म कैमरे तक की बहुविध प्रक्रिया उन्होंने साध्य की।.इसमें पहेला फिल्म फुटेज रिकॉर्ड हुआ ..१९ मार्च , १८९५ में ..जो था उन्हीके लुमिए फैक्ट्री से लोग बाहर आ रहे  दर्शाने का! बाद में उन्होंने अपने प्रोजेक्टेड मोशन पिक्चरस का प्राइवेट स्क्रीनिंग किया ..इसमें दस लघुपट दिखाए गए ...हर एक फिल्म १७ मीटर लम्बी और ५० सेकंड चलनेवाली थी !..कुछ महीनो बाद उन्होंने पेरिस के 'ग्रैंड कैफ़े' में आम लोगो के लिए इसका प्रेजेंटेशन किया। इसमें निम्न दस फिल्मो को दर्शाया गया :


१) एंट्री ऑफ़ सिनेमातोग्राफे
२) लुमिए फैक्ट्री से मजदूरों का बाहर आना
३) बागबान (गार्डनर )
४) घोडों की राइडिंग
५)  गोल्डफिश के लिए फिशिंग
६) ब्लैक स्मिथ
७) परिवार का नास्ता (बेबीज ब्रेक्क्फास्त )
८) जम्पिन्ग ऑन दी ब्लंकेट
९) रास्ते का दृश्य (अ स्ट्रीट सिन )
१०) समुन्दर दृश्य




फिर १८९६ में लुमिए बंधू  विश्वसंचार के लिए निकले....लन्दन , मोंत्रेयल , न्यूयॉर्क....जैसे  नामी शहरों से होते हुए वह भारत में पहुंचे !...और ७ जुलाई को बम्बई के 'वाटसन'स होटल' में उन्होंने अपने इस प्रोजेक्टेड मोशन पिक्चरस का सादरीकरण किया...और 'सिनेमा' इस सर्वश्रेष्ठ कला से वाकिफ करवाया!

इस सादरीकरण में लुमिए बन्धुओके कुछ सातएक लघुपटोको दर्शाया गया !..जिनमे (अनुक्रमसे) थे:
१) लुमिए फैक्ट्री से निकलते मजदूर
२) महिलाए और सैनिको का टहलना
३)परिवार का बच्चे के साथ नास्ता
४) बाग में पानी डालता गार्डनर (पहला विनोदी )
५) ताश खेलते...पार्टी मनाना
६) रेल का प्लेटफार्म में आना
और ७) विध्वंस (डीमोलिसन )

 इसमें बाजु में दिख रहा दृश्य,..जिसमे रेल प्लेटफार्म में आती है ...वह लोगोंको इतना हुबहू लगा की, वह कही अपने ऊपर न आ जाए...इस डर से वह बाहर भागे थे !

फिर १८९९ के बाद हमारे देस में चित्रपट माध्यम को विकसीत करने के क्या प्रयास हुए,...और इसमें बम्बई के फोटोग्राफर हरिश्चन्द्र भाटवडेकर तथा सावेदादा, एफ .बी .थानावाला....कलकत्ता के 'रॉयल बॉयोस्कोप ' के हीरालाल सेन बंधू , जे .एफ .मदान और पहले निर्देशक जाने गए ज्योतिष सरकार....आदीओने इसमें अपना कैसा योगदान दिया...इसके बारे में आप मेरे इसके पहले लेखो में पढ़ चुके है !


-मनोज कुलकर्णी


 

Sunday 30 June 2013

पहेला भारतीय कथा चित्रपट...पाटनकरजी का प्रयास...और तोरनेजी का योगदान !


भारतीय चित्रपट के प्रवर्तकों के बारे में...मेरे पिछले लेख में आपने पढ़ा होगा। किस तरह भारत में चित्रपट माध्यम विकसित होता गया और इसमें सावे दादा से लेकर हीरालाल सेन, मदान जैसोने  किस तरह अपना शुरुआती योगदान दिया...यह आप जान गए होगे ! अब देखना है अपना पहेला कथा चित्रपट किस तरह निर्माण होता गया।

१९०३ में एडविन एस पोर्टर ने 'दी ग्रेट ट्रेन रोबरी ' यह विश्व की पहली फीचर फिल्म, (याने की कथा चित्रपट) बनायी ! अमेरिका के हॉलीवुड सिनेमा की वह जैसी शुरुआत थी!..बादमे अपने देश में पहेला कथा चित्रपट बनाने का मानस...सावे दादा याने की हरिश्चन्द्र भाटवडेकरजी का था; लेकिन उनके सहकारी भाई के गुजरने से वह कार्य अधुरा रह गया !..इसके बाद ऐसा प्रयास करने वाली व्यक्ति थी श्रीनाथ पाटनकर !..उन्होंने १९१२ में 'सावित्री ' यह कथा चित्रपट किया तो था....लेकिन उसके निर्मिती प्रक्रिया (प्रोसेसिंग) में समस्याए पैदा हुई और उसकी प्रिंट पूरी तरह से ब्लेंक आ गयी! इसके साथ सिर्फ पहले कथा चित्रपट का प्रयास नाकामयाब रहा ऐसे नहीं; बल्कि इसमे प्रमुख भूमिका निभाने वाली महिला नर्मदा मांदे का भारतीय चित्रपट की पहली स्त्री कलाकार होने का मान भी चला गया !
दादासाहब तोरने 

लेकिन इसी साल...१९१२ में ही रामचन्द्र गोपाल तथा दादासाहेब तोरने...इन्होने 'पुंडलिक' यह अपना कथा चित्रपट सफलतासे पूरा किया !...फिर भी वह भारत का पहला कथा चित्रपट नहीं  माना गया। इसकी वजह कई थी...पहेला कारन ऐसे बताया जाता  है की वह एक नाटक का चित्रीकरण था ..और दूसरा यह की उसके लिये विदेसी छायाचित्रकार का सहयोग लिया गया था!..इसके बाद ऐसा कहा जाता है की इसकी प्रक्रिया लन्दन में करायी गयी थी !

विदेसी फिल्म के साथ मुंबई में दिखाए गए
'पुंडलिक' चित्रपट की जाहीरात  '
मुंबई में नौकरी करते समय नाटक और बाद में आये चित्रपट माध्यम के प्रति दादासाहब तोरने  आकर्षित हुए थे ..और उसमे काफी दिल्चस्बी लेने लगे थे!..खास कर विदेसी चित्रपटों की कथाए देखकर उन्हें ऐसा लगा की हमारे यहाँ इतनी पुराण कथाए है, उसपर चित्रपट हो सकता है! तब 'श्रीपाद संगीत मंडली' का ,कीर्तिकरजी ने लिखा हुआ  'पुंडलिक ' यह नाटक इसके लिए उन्होंने चुना। उसके बाद अखबार मालिक नानूभाई चित्रे को उन्होंने इस चित्रपट की निर्मिती के लिए राजी किया !


'पुंडलिक ' नाटक पर चित्रपट निर्माण का जब तय हो गया, तब इसके लिए लगने वाली सामग्री को विदेस से लाया गया। इसमें  'बोर्न एंड शेफ़र्ड कंपनी' से 'विल्यम्सन कैमरा' खरीद कर, उसको ऑपरेट करने के लिए जोंसन नाम के कैमरामैन को नियुक्त किया गया ...और इस 'पुंडलिक' नाटक का चित्रीकरण मुंबई में (आज के 'नाज़ ' से करीब 'मंगलदासवाडी' में) किया  गया ..इसमें उस नाटक केही कलाकार थे !..लेकिन चित्रपट के लिए निद्रेशन किया था दादासाहब तोरनेजी ने !.फिर लन्दन से उस की प्रिंट आगे की प्रक्रिया (प्रोसेसिंग ) पूरी करके लायी गयी। बाद में यह 'पुंडलिक' चित्रपट मुंबई के 'कोरोनेशन थिएटर ' में १८ मई ,१९१२ को दिखाया गया !


-मनोज कुलकर्णी

 

Saturday 22 June 2013

भारतीय चित्रपट के प्रवर्तकोंको अपने चित्रपट शताब्दी के शुभ अवसर पर अभिवादन !!

७ जुलाई , १८९६ ..भारत में चित्रपट माध्यम का आगमन हुआ ...वह लुमिए बन्धुओने मुंबई में 'वाटसन होटल 'में किए हुए उनके छह मुकपटओ के प्रदर्शन से ! उससे पहले १८९५ में फ्रांस में उन्होंने अपने सिनेमाटोग्राफ का प्रदर्शन किया था !

मुंबई में 'लुमिए शो ' में 'अराइवल ऑफ़ ट्रेन ', 'लीविंग दी फैक्ट्री ' जैसे उनके लघुपट देखकर विज्ञानं का यह चमत्कार देखनेवालो ने महसूस किया ! वैसे हमारे भारत में १८९४-९५ दरमियाँन 'शाम्ब्रिक खारोलिका '(मैजिक लैंटर्न ') नाम का इस सदृश चलचित्र का आभास दिलाने वाला खेल कल्याण के महादेव गोपाल पटवर्धन और  उनके पुत्रो ने शुरू किया था।
हरिश्चन्द्र भाटवडेकर तथा सावे दादा 

फिर १८९६ में लुमीए शो से प्रेरणा लेकर, मुंबई  में मूल रूप से छायाचित्रकार रहे हरिश्चन्द्र सखाराम भाटवडेकर तथा सावे दादा ने ' दी रेस्लर्स ' और  'मैन एंड मंकी ' जैसे लघुपट १८९९ में बनाये। किसी भारतीय ने चित्रपट निर्मिती करने का वह पहेला प्रयास था !   उसके बाद एफ बी थानावाला नामक इंजिनियर ने १९०० में 'स्प्लेंडिड न्यू व्यूज ऑफ़ बॉम्बे ' यह लघुपट तयार किया !
हीरालाल सेन 

इसके बाद कोलकत्ता में 'रॉयल बॉयोस्कोप ' के हीरालाल सेन और उनके बन्धुओने  कुछ बंगाली नाटक और नृत्य के दृश्य चित्रित करके फ़रवरी ,१९०१ के दरम्यान वह परदे पर दिखाए !,आगे १९०५ तक कोलकत्ता में जे ऍफ़ मदान इन्होने इस तरह की चित्रनिर्मिती शुरू की ! नाटय सृष्टी से आये हुए मदान ने 'ग्रेट बंगाल पार्टीशन मूवमेंट' जैसे लघुपट निर्माण किए। इन्हे वो 'स्वदेशी ' कहा करते थे !
जे एफ मदान 

इस वक्त तक 'टेन्ट सिनेमा ' अर्थात तम्बुओ में दिखाई जाने वाला चित्रपट आ चुका था !...और आम आदमियोको  यह चमत्कार लग रहा था ! ऐसा कहते है की परदे पर आती वह चलचित्र इतनी हुबहू रूबरू होती थी, की परदे पर आ रही रेल  देख कर डर के मारे लोग तम्बू के बाहर भागते थे !

१९११-१२ तक 'दिल्ली दरबार' इस भव्य चित्रपट के साथ कुछ इस तरह के लघुपट निर्माण होते गए,...और भारतीय प्रेक्षकोको चित्रपट माध्यम की पहचान होती गयी !...तब तक वहभी  लिंक टाइटल  ( दृश्योके बिच आनेवाली कथा शीर्षके ) और नाटको के बाद्यब्रुंद से संगीत के साथ दिखाई जाने वाले इन मुकापटो का लुफ्त उठाने से वाकिफ हो गए !!